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सिनेमा

हिंदी सिनेमा की तीसरी धारा : पाठ व प्रक्रिया

सत्यदेव त्रिपाठी


हिंदी सिनेमा की तीसरी धारा 'तीसरी दुनिया' (थर्ड वर्ल्ड कंट्रीज) जैसी कोई उपेक्षित-सी चीज नहीं है। यह सोचे-समझे ढंग से शुरू हुई ऐसी प्रवृत्ति है, जिसने फिल्म या किसी भी कला के उस मानक को सार्थक किया है, जिसे तुलसीदास की भाषा में 'बुध विश्राम, सकल जन रंजनि' कहा गया है। याने समय और समाज के लिए संवेदना और सरोकार भी, सिने-कला का उत्तम आस्वाद भी और इन्हीं के चलते वह लोकप्रियता भी, जिसमें व्यापक जनसमूह तक पहुँचकर कोई भी कला सार्थक होती है तथा व्यावसायिकता की उस तुला पर भी खरी उतरती है, जिसके बिना फिल्म जैसी खर्चीली कला का सृजन व निर्माण संभव ही नहीं।

कहना होगा कि हिंदी सिनेमा की अब तक की दो धाराएँ एकदम स्पष्ट हैं - व्यावसायिक और सार्थक सिनेमा। इनके ढेरों नाम हैं - 'इन्हके नाम अनेक अनूपा'। और इनकी पहचान व प्रवृत्ति को लेकर ढेरों चर्चाएँ हो चुकी हैं। अब उस पर और बात करना एक और पिष्टपेषण ही होगा। लेकिन इसके आगे की तीसरी धारा की चर्चा का सूत्र-सिलसिला बनाने के लिए एक मूल अंतर का उल्लेख जरूरी है - व्यावसायिक में अधिकाधिक कमाना ही मकसद होता है, उसमें समय-समाज के प्रति कोई सरोकार हो, कोई समझ बने, सिने-कला का कुछ सधे... आदि से कोई मतलब नहीं...। और सार्थक में बस यह कि उक्त सबकुछ जमकर हो, भले वह फिल्म पैसा बनाना तो क्या, लगा हुआ भी निकाल पाए या न निकाल पाए। पहले में खाने वाले के चटखारे के लिए थाली परोसना है और दूसरे में अभिव्यक्ति का वह सुख है, जिसे काव्यशास्त्री 'ब्रह्मानंद-सहोदर' कहते हैं। साहित्य की शब्दावली में कहें, तो एक सिर्फ संप्रेषण का विश्वासी है और दूसरा अभिव्यक्ति का सुख चाहता है।

दोनो ही दो सीमांत (एक्स्ट्रीम) हैं।

यदि आजादी के बाद पनपी 'कितना कमाएँ, कितना लूटें', वाली राष्ट्रीय प्रवृत्ति का रहबर बना व्यावसायिक सिनेमा, जो सत्तर के दशक तक पहुँचते-पहुँचते अपने चरम (वो तब के समय का चरम था, वरना आज तो उस धारा में जो हो रहा है, उसके आगे तब का सब पानी भरे) को प्राप्त कर चुका था, तो सत्तर के दशक में उभरा सार्थक सिनेमा उसी चरम व्यावसायिकता की सहज व अनिवार्य प्रतिक्रिया बनकर आया...। धूम भी मच गई। आंदोलन-सा उठ खड़ा हुआ। और सिने-विधा की ऐसी शक्ति और संभावना खुली कि बुद्धिजीवी व समझदार दर्शक-वर्ग विस्मित व निहाल हो उठा। हम उन्हीं दिनों हिंदी साहित्य में बी.ए.-एम.ए. करने आए और मुंबई-निवास के प्रताप से इसके संपर्क में आ गए, तो मंथन, अंकुर, भूमिका, पार, पार्टी, सारांश, स्पर्श... जैसी एक से एक फिल्में एक अच्छी साहित्यिक कृति को पढने का सुख देती थीं और अपनी जीवंत दृश्यता (विजुअलिटी) के चलते उससे कहीं अधिक असरकारक सिद्ध होती थीं। सहज स्वीकारना होगा कि सार्थक सिनेमा की इस धारा ने ही हमें सिने-प्रेमी बनाया। सिनेमा पर बौद्धिक चर्चाओं-बहसों का दौर चल पड़ा, वरना तो कुछ मुरीद होते थे, जिनके श्रीमुख से सिने-तारकों (स्टारों) की अदाओं-सवादों और कुछ वादियों आदि के दृश्यों व गीतों आदि की विभोर सराहना भर होती थी।

यूँ ऐसी सार्थक फिल्में फुटकर में पहले भी बनती ही थीं - 'दो बीघा जमीन' व 'गर्म हवा' ...आदि जैसी, पर सत्तर के दशक में शुरू हुई यह धारा उसका विकास न थी। वह न होती, तो भी यह धारा फूटती। इसने उससे कुछ लिया भी नहीं। हुआ यह कि नए सोच के तमाम प्रशिक्षित लोग एक साथ सिने-संसार में उठ खड़े हुए और एक आंदोलन चल पड़ा...। इसे 'नया सिनेमा' भी कहा गया, जो साहित्य की 'नई कहानी' व 'नई कविता' के तर्ज पर बना और पहली बार ऐसा हुआ कि कोई प्रवृत्ति सिनेमा से बीस सालों पहले साहित्य में आ गई, वरना सार्थक सिनेमा के आने के बाद तो इधर की ढेरों-ढेर प्रवृत्तियों का पुरस्कर्ता बनने का श्रेय सिनेमा को ही जाता है।

लेकिन इस युगांतकारी शुरुआत के दस साल बीतते न बीतते इसकी भी सीमाएँ व अंतर्विरोध सामने आ गए। सभी असंतुष्ट हुए। दर्जन भर फिल्में करके भी सार्थक सिनेमा का हीरो जनता के बीच अपने चेहरे की पहचान और गाड़ी (जो आज तमाम स्ट्रगलर्स के पास भी है) तक खरीदने के लिए खाली जेब लिए सड़क पर ऑटो खोजते हुए कुंठित होता रहा, तो हॉल में 50 दर्शकों को भी न देखकर वह निर्माता-निर्देशक भी सर धुनता रहा, जो समाज-परिवर्तन की आकांक्षा से सिनेमा बना रहा था। पुरस्कार सब इसी सिनेमा को मिलते रहे, पर उसमें से तमाम फिल्में तो थियेटर के पर्दे पर पहुँचने (रिलीज) तक के लिए तरसती रहीं... और जो पहुँचीं, उन्हें शुरुआती दौर (बाद में तो बहिष्कार ही कर दिया) में देखने पहुँच गया आम दर्शक तो हॉल की कुर्सियाँ तोड़ने को उद्यत हो जाता... क्या दिखा रहे हैं, समझ में नहीं आता। मैंने अपने किशोरवय छात्रों को मणि कौल की फिल्म 'उसकी रोटी' देखने भेज दिया। दूसरे दिन आकर सब पिल पड़े... कहाँ भेज दिया सर!! वो कोई फिल्म है - एक औरत रोटी की पोटली लिए आती है। सड़क पर खडी रहती है। एक ट्रक आता है। वो स्त्री रोटी की पोटली चालक को पकड़ाती है। ट्रक चला जाता है। यही होता रहता है... क्या देखा जाए? और पूना के फिल्म आर्काइव में 'चार अध्याय' जैसी विश्रुत फिल्म देखते हुए कला की भीषण अनन्यानुरक्ति (और्गाज्म) से कोफ्त मुझे भी होती रही थी...। गरज ये कि हर स्तर पर हैरानी का सबब! लोग त्रस्त...। और इसी सबके चलते ऐसे भी जुमले सामने आए - 'ब्लॉक बस्टर बीसवीं सदी का सबसे सशक्त माध्यम है। ...एक 'अमर अकबर एंथोनी' पूरे समानांतर सिनेमा पर भारी है...'। याने सार्थक सिनेमा को लील गया व्यावसायिक सिनेमा या अपनी मौत मरने लगा सार्थक सिने-आंदोलन।

इसी का तोड़ खोजते हुए जिसका उदय हुआ, उसे हम तीसरी धारा का सिनेमा कह सकते हैं। इसी हानि, असंतोष और छटपटाहट के मुकाम से उसका पथ प्रशस्त हुआ। यह उन दोनो धाराओं की क्षति-पूर्ति करता हुआ उसका अगला चरण - परिवर्धित रूप - सिद्ध हुआ, जिसमें समानांतर सिनेमा की असफलता के तत्वों को समझा गया, उसे भरा गया और व्यावसायिक के अतिरेकों (स्टंटों) की कलाविहीन एकरसता को खारिज किया गया। और इस तरह बना 'रंग दे बसंती', 'परिणीता', 'कॉर्पोरेट', 'लगे रहो मुन्ना भाई', 'लगान' 'चक दे इंडिया' के बाद 'पिपली लाइव', 'तारे जमीं पे', 'थ्री ईडियट्स', 'भूलभुलैया', 'पेज थ्री', 'फैशन' से 'हिरोइन' व 'विक्की डोनर', 'भाग मिल्खा भाग' ...आदि तक तमाम फिल्मों ने एक नई दुनिया हमारे सामने खोल दी। जैसे समानांतर फिल्मों के लिए कहा गया कि उसकी परंपरा पहले से मौजूद थी - 'दो बीघा जमीन' से चली आ रही थी, उसी तरह इस तीसरी धारा की परंपरा तो उससे भी अधिक सुदृढ़ व स्पष्ट थी, जिसमें हम 'मदर इंडिया', 'मुगलेआजम', 'पाक़ीजा', 'तीसरी कसम' आदि तमाम फिल्मों को देख सकते हैं। लेकिन वही कि तब सोची-समझी योजना के तहत नहीं, फिल्मकार की प्रकृति व विषय के अनुरूप ये फिल्में बन जाती थीं। समानांतर सिनेमा के आंदोलन-काल में भी अर्थ, उत्सव, मिर्च मसाला, उमराव जान जैसी फिल्में बनीं, लेकिन वे भी बनीं ही, आज की तरह सुनियोजित ढंग से बनाई नहीं गईं। याने वे सहज प्रवाह थीं, तोड़ के रूप में की गई ईजाद नहीं।

दोनों के इस अंतर के पाठ और प्रक्रिया को दो विवेचनों के बरक्स देखें, जो इस आलेख का अभीष्ट है। पहले में एक अभिनेता के माध्यम से स्टंट फिल्मों से बनती तीसरी धारा और दूसरे में एक निर्देशक के माध्यम से सार्थक सिनेमा से तीसरी धारा में संतरण की प्रक्रिया का जायजा लिया जाए...।

अभिनेता के रूप में अमिताभ बच्चन से बड़ा कौन हो सकता है? उन्होंने सात हिंदुस्तानी, रेशमा और शेरा, सौदागर जैसी सार्थकनुमा फिल्मों से शुरुआत करके बॉम्बे टु गोवा जैसी हास्य फिल्म से होते हुए ज़ंजीर, दीवार और शोले जैसी जहीन ऐक्शन फिल्मों के बाद घनघोर व्यावसायिक और बेसिर-पैर की स्टंट फिल्मों का अंबार लगा दिया। संयोग देखिए कि यही समय सार्थक फिल्मों की शुरुआत का है, जिसमें कुछ करके वे हिंदी फिल्म-जगत को नई ऊँचाई दे सकते थे। लेकिन सिने-इतिहास में तो कालदेवता तीसरी धारा की शुरुआत की जमीन व कारणों के लिए उन्हें निर्मित कर रहा था। यह सच है कि यह मेगा स्टार न होता, तो तीसरी धारा का सिनेमा न जाने कब आता...। यूँ अभिनेता के रूप में अमिताभ बच्चन की महानता अपनी जगह शंका-सवालों से परे है, लेकिन फिल्म-चयन में सरोकार का नाम नहीं, सुरुचि व कलात्मकता का पता नहीं। उन तमाम फिल्मों को देखकर कौन कहेगा कि साहित्य-कलामय संस्कारों में पले-बढ़े व्यक्ति का चयन है यह। गनीमत रही कि बीच-बीच में 'आलाप', 'अभिमान', 'मिली' जैसी फिल्में भी आ गईं - पता नहीं इत्तफाकन या इरादतन, वरना...। हाँ, बढ़ती उम्र के बाद ब्लैक, पा, भूतनाथ, अक्स जैसी कुछ अभिनव प्रयोग व चीनी कम जैसी चुलबुली फिल्में आई हैं। यह पारी कुछ अधिक स्थायी होगी...।

इसी उत्तरार्ध-काल में महेश मांजरेकर के निर्देशन में एक फिल्म आई 'विरुद्ध' - हमारी तीसरी धारा की एक रहनुमा फिल्म। इसमें अमिताभ बच्चन एक सीधे-सादे शरीफ विद्याधर पटवर्धन नाम के सेवानिवृत्त आम आदमी की भूमिका में हैं, जो अपनी बीवी (शर्मीला टैगोर) से बेपनाह प्यार और नाटकीय डर के मारे घर से बाहर भी चीनी-मलाई वाली चाय नहीं पी पाता। घर के नीचे शोर मचाते गैरेज वाले (संजय दत्त) को डाँटने जाता है और उनकी घुड़की से भाग खड़ा होता है। लेकिन जब विदेश से आया बेटा (जॉन अब्राहम) सरेआम सड़क पर एक अमीरजादे हर्ष द्वारा किसी महिला को बेइज्जत होने से बचाने के नेक व शरीफ काम की पहल में अचानक कत्ल कर दिया जाता है और भ्रष्ट व्यवस्था में पैसों के बल पर कोर्ट से अमीर बाइज्जत बरी और पटवर्धन का बेटा नशीली वस्तुओं का कारोबारी (ड्रगडीलर) साबित हो जाता है, तो वही शरीफ आदमी बदला लेने खड़ा होता है।

बदले के लिए अमिताभ बच्चन अभिनीत किरदारों ने सारी फिल्मों में क्या-क्या गुल नहीं खिलाए - जैसे और जैसा बन पड़ा, निर्देशकों ने कराए और उनने किए। ज़ंजीर, दीवार, शोले से लगाकर शहंशाह, आख़िरी रास्ता, अदालत ...कोई भी देख लीजिए, मुख्य थीम है बदला। एक बूढ़ी औरत को गाड़ी से धक्का दे देने वाली अमीर लड़की (मर्द की अमृता) से तुरत-फुरत बदला लेने के लिए क्या सीन व संवाद बने!! सब असंभव, सब स्टंट, सब अविश्वसनीय-अकरणीय...। कुली में एक घाव ने जीवन में क्या हालात बना दिए, फिर भी फिल्म में एक आदमी सैकड़ों को मारता रहा, स्टंट गढ़ता रहा और सारी दुनिया देखती रही। विश्वास करती रही। लट्टू होती रही...।

लेकिन इस तीसरी धारा ने उसी अमिताभ बच्चन से वह सब न कराया, जिससे हॉल में तालियाँ बजती थीं। बल्कि वो कराया, जो हिम्मत करे, तो कोई भी आम आदमी कर सकता है - एकदम विश्वसनीय-करणीय और जिससे सबकी आँखें नम हो जाती हैं। वह गैरेज वाले संजय दत्त के पाँव पड़कर एक पिस्तौल लेता है। पत्नी उसे टीका लगाती है और वह एक पैंट पर ढीला-ढाला कुर्ता व लाल रंग का स्वेटर पहनकर पैदल चलते हुए उस अमीर आदमी हर्ष के दफ्तर अकेले जाता है। शूटेड-बूटेड होकर दहाड़ते व गोलियाँ दनदनाते हुए सबको अकेले भूनते तो बहुत देखा गया है अमिताभ बच्चन को। लेकिन उस हिलते हुए आम आदमी का काउंटर पर मिलने का समय लेना दर्शनीय व उल्लेखनीय बन जाता है। बुलाने पर धीरे-धीरे अंदर जाना। हर्ष के साथ सीधी-सधी भाषा में नपे-तुले संवादों में इतनी असरदार बातें होती हैं कि उसके आगे अमिताभ की जीवन भर की सारी दहाड़ व चीख-चिल्लाहट पानी भरे।

हर्ष भी अपने दफ्तर में अति विश्वास और बनावटी उदारता में पूरी सच्ची कहानी बता देता है कि उस औरत को खत्म करना उसकी इज्जत और पिता के चुनाव की अहमियत के लिए कितना जरूरी था। 'वह मेरा निजी मामला था। क्या जरूरत थी आपके बेटे को उसमें पड़ने की? वह क्या साबित करना चाहता था? ...मुझे भी तो अपने को बचाना था..., इट वाज ऐन एक्सीडेंट'।

हर्ष जैसे उस औरत की इज्जत की कीमत देने को तैयार था, आज विद्याधर को भी बेटे के हर्जाने के रूप में दस्तखत किया हुआ चेक देना चाहता है - राशि वे जितनी चाहें भर लें। पर पटवर्धन ने विनम्रतापूर्वक पांडवों के पाँच गाँव की तरह बस, इतना चाहा कि 'तुम्हें फाँसी दिलाकर मेरा बेटा नहीं मिलेगा। बस, इस केबिन से बाहर निकल कर अपने दफ्तर के सामने कह दो कि मेरा बेटा निर्दोष था'। याने न्याय भले न मिला हो, उन्हें व बेटे की आत्मा को सुकून मिले...। उसके सीधे इनकार पर जेब में रखे कैसेट में दर्ज बयान का नमूना सुनाते हुए कहा 'तो कल टीवी पर इसे सुन लेना...'।

बस, उसी पल अमीरजादे हर्ष की सारी ओढ़ी हुई शराफत झड़ गई। कड़वे शब्दों में 'बुड्ढे को सुरक्षा दल के हवाले करने के आदेश' के साथ ही बेहद नाटकीय झटके से मि. पटवर्धन की जेब से निकली पिस्तौल तन गई। अब पटवर्धन के पीछे सुरक्षा गॉर्ड की पिस्तौल और हर्ष के सीने पर तनी पटवर्धन की पिस्तौल। जरा सोचिए कि यदि यह सत्तर-अस्सी के दशक का समानांतर सिनेमा होता, तो यह दृश्य बनता ही नहीं - तड़प-तड़प कर मरते पटवर्धन दंपति। और कल्पना कीजिए व्यावसायिक सिनेमा की... हर्ष की कनपटी पर पिस्तौल रखकर खुद को बाहर छोड़ने का एक और स्टंट बनता... मारधाड़ के बीच सारे भाव-विचार गायब हो जाते - बच जाती हार और जीत। हीरो जीतता या जो जीतता, हीरो होता! लेकिन यहाँ वही हुआ, जो ऐसे में सचमुच होता। एक सेकेंड में गोली चलती है, हर्ष कुर्सी पर ढेर हो जाता है। तब देखिए कि ऐक्शन के चक्कर में क्या खो देता था सिनेमा!! अब सुरक्षा गॉर्ड के सामने खड़े होकर पटवर्धन कहते हैं - 'अब आप गोली मार सकते हैं मुझे'। और यह वाक्य जैसे पूरे समानांतर सिनेमा की भरपाई है, वैसे ही इसके जवाब में गॉर्ड का एक वाक्य पूरे व्यावसायिक सिनेमा पर भारी है - 'आप को मार दूँगा सर, तो अपने बेटे को क्या मुँह दिखाऊँगा'?

और पूरा दफ्तर उन्हें सादर जाने देता है। याने सच और न्याय मरा नहीं। ये मरते नहीं। आम आदमी में जिंदा रहते हैं। सिनेमा उसी आम आदमी की कला है, जिसे इस तीसरी धारा ने जीवित किया। जिसे मुख्य धारा का सिनेमा ऊलजलूल दिखाने में दबा देता था और समानांतर सिनेमा अपनी कला के घटाटोप में उलझा देता था, जो जीवन में सरकारी तंत्र करता है आम आदमी के साथ और जिसे इस तीसरी धारा की तरह ही दुष्यंत कुमार ने बताया - 'निर्वसन मैदान में लेटी हुई है जो नदी, पत्थरों की ओट में जा-जाके बतियाती तो है'। बस, तीसरी धारा ने वो पत्थरों की ओट हटा दी। अनकहा सच सामने आ गया। कविता की तरह सिनेमा बन गया - 'जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी'।

दो बातें और सामने आती हैं, जो यूँ नहीं आतीं।

पहली बात कोर्ट में, जहाँ कैसेट लेकर पहुँचने में कितने फुटेज बर्बाद होते। यहाँ हर्ष के कैसेट को सुनकर जज ने कहा - 'शॉकिंग एविडेंस'। और उतने ही नपे-तुले सधे शब्दों में उसी अमिताभ बच्चन का बयान आप कभी देखिए और बस, 'शहंशाह' के कोर्ट दृश्य की याद कर लीजिए। चाहें, तो गोविंद निहलानी के 'आक्रोश' में नसीर के झींकते हुए कोर्ट सीन को भी याद कर लें (हालाँकि तब वह बहुत जानदार लगा था, लेकिन अब तीसरी धारा ने उसकी सीमाएँ दिखा दीं - अध्ययन तुलनात्मक ही होते हैं)। 'शहंशाह' में बाप की हत्या का बदला था, यहाँ बेटे की। न्याय-व्यवस्था से हार व निराशा वहाँ भी हुई थी। पर यहाँ 'जब पूरे सिस्टम ने अपना काम नहीं किया मी लॉर्ड, तो एक आम आदमी को वह काम करना पड़ा...। एक जान बच सकती थी - हर्ष आज जिंदा होता! ...मैं अपने बचाव में कुछ नहीं कहूँगा मीलॉर्ड, क्योंकि बचाव तो आपको करना है योर ऑनर। मैं जानना चाहूँगा कि इस लापरवाही की वजह क्या है...। और एक वाक्य में कोर्ट ने पूरी व्यवस्था की शर्मिंदगी कुबूल की। जज ने मि. पटवर्धन से बस एक शब्द कहा - 'सॉरी' और उन्हें निर्दोष घोषित किया।

दूसरी बात कोर्ट से बाहर प्रेस के सवालों - गृहमंत्री को कोर्ट में ले जाएँगे? कॉम्पन्सेशन का दावा करेंगे? ...आदि का एक ही उत्तर - 'जज ने कहा, मेरा बेटा बेकसूर है'। और उनके दोस्त उन्हें लेकर चले जाते हैं। याने क्या-क्या काट-छोड़ देना है, की कला का एक नमूना। और बदला नहीं, अपने बेटे की बेगुनाही को सामने लाना। इतनी मामूली बातों से बन सकता है बड़ा सिनेमा... 'मामूली चीजों का देवता' का जमाना लेकर आई है तीसरी धारा...।

यह मामूलीपना ही प्राप्य है फिल्म के परिवार का। अब बेटे की निर्दोषता से सुकून पाकर अपनी विदेशी बहू (जिसके स्वीकार के विधान की चर्चा में भी तीसरी धारा के काफी गुर समाहित हैं) व पोती के साथ पटवर्धन दंपति सुखपूर्वक रहते हैं...। तब बेटे की आत्मा को वहाँ रहने की कोई वजह नहीं रह जाती... याने उसके सूत्रधारत्व की कला भी मकसद से जुड़ जाती है। और अभी तो सिर्फ मकसद का विवेचन हुआ। निर्मिति की ऐसी कलाएँ ढेरों हैं, जिनकी समूची चर्चा हो, तो बात और खुले, पर वह फिर कभी...

फिलहाल चलते हैं निर्देशक प्रकाश झा के पास...।

'दामुल' से 'चक्रव्यूह' तक की उनकी यात्रा में तीसरी धारा के पड़ाव तक पहुँचने की सोच व ईजाद, योजना व मकसद काफी स्पष्ट हैं। वे इसके सफल प्रयोक्ता हैं और इस तीसरी धारा की सीमा-रेखा को तोड़कर उस पार (व्यावसायिक क्षेत्र में) जाने की फिसलती मेंड़ के रहबर भी। यदि सर्वेक्षण किया जाए, तो टी.वी. पर सबसे सफल व सर्वाधिक दिखाई जाने वाली फिल्मों में (इधर आई 'डर्टी पिक्चर' को छोड़कर) नं एक पर 'गंगाजल' व नं. दो पर 'अपहरण' ही आएगी। इन्हें तीसरी धारा की पाठ-प्रक्रिया के रूप में ले सकते हैं।

प्रकाश झा अपने मूल प्रांत (बिहार) की समस्या को उठाते रहे हैं। 'दामुल' भी वहीं के जीवन पर वहीं के लेखक (शैवाल) की लिखी कहानी थी। उसे बनाने के बाद बिहार से बाहर निकलने का रूप दिखता है। असल में वह समानांतर सिनेमा (दामुल) के दायरे व प्रारूप से निकलने की छटपटाहट है, जब वे राजकिरण को लेकर फुटबाल के खेल पर 'हिप-हिपहुर्रे' और सुरेखा सीकरी, अनंग देसाई, बसंत जोसलकर आदि के साथ विजयदान देथा की कहानी पर 'परिणति' बनाते हैं। पर शायद 'नान्य पंथाः' के हालात में ही पल्लवी जोशी को लेकर एनएफडीसी के लिए 'मृत्युदंड' बनाने की योजना बनाई होगी। लेकिन '...पुरुषः स भाग्यम, दैवो न जानाति', तो कौन जाने कि क्या मिला और माधुरी दीक्षित मिल गईं। तब तक वे भी समानांतर सिनेमा का स्वाद चख चुकी थीं - शायद ओमपुरी की सहकलाकारिता के साथ 'धारावी' में। और बस, 'दामुल' के 12 सालों की डामल (कैद) के बाद खुल गए दरवाजे प्रकाश झा के भी और सिनेमा की तीसरी धारा के भी।

और देखें कि प्रवृत्ति बन गई - अब तीसरी धारा की हर फिल्म में एक स्टार तो होता ही है - आमिर खान सबमें अकेले आए। संजय दत्त, शाहरुख खान, अक्षय खन्ना, अमिताभ बच्चन... सभी आए। ये एकाधिक भी हो सकते हैं। लेकिन सार्थक सिनेमा की तरह स्टार को न लेकर 'स्टार मेकर' बनने का दंभ छोड़कर ही बनी और चली तीसरी धारा। प्रकाश झा ने आगे चलकर अजय देवगन, नाना पाटेकर, मनोज वाजपेयी आदि को खूब चलाया - एक बार बच्चनजी को भी लिया। सैफ अली खान को स्टार बनाया तीसरी धारा की 'परिणीता' ने ही, पर बनने के बाद झा साहेब ने उन्हें भी लिया और उस गोरे-चिट्ठे को 'आरक्षण' में दलित बनाने का प्रयोग किया। याने एक स्टार लेना एक स्वीकृत घटक बन गया इस धारा का, जिसे तोड़ते हुए बहुसितारी (मल्टी स्टारर) फिल्म भी उनकी व्यवसायपरकता का प्रमाण है।

'मृत्युदंड' की समस्या अंतिमतः स्त्री-शोषण की बनी और कई स्तर पर जानलेवा संघर्ष करा के उनकी मुक्ति की राह बनाई। नपुंसक पति के पाखंड को खारिज करके जाति से बाहर, बल्कि अपने से छोटी जाति वाले संवेदनशील मददगार से बिना शादी के गर्भ धारण करने की बोल्डनेस आई। गाँव के गुंडे माफिया की लंपटई से मनोवैज्ञानिक केस बन गई उसकी पत्नी की पीडा भी शामिल हुई। याने प्रयोग ही प्रयोग। अंतिम तान टूटी, जब गाँव के पूरे पुरुष-वर्ग ने स्त्रियों पर हमला बोल दिया। लेकिन इधर सारी औरतें भी एकजुट हुईं और लोटों से मार-मारकर सबको खदेड़ दिया। तीसरी धारा के तहत एकजुटता का यह आइडिया काफी कारगर है। उसी समय (1997-98) मैत्रेयी पुष्पाजी अपने महत्वाकांक्षी उपन्यास 'चाक' में गाँव की सारी स्त्रियों को एक करके सारंग नैनी को प्रधान के लिए जितवाने का सफल आइडिया दे रही थीं।

इसके बाद धड़क खुल गई और झा साहेब अपनी जमीन (बिहार) की ओर बहुरे।

'गंगाजल' बनी। 'मृत्युदंड' में जो बोल्डनेस विधात्री थी, यहाँ घातक बनकर आई - सूजे से आँखें फोड़कर तेजाब डाल देने वाला निदान। या मसाला!! पर परिणाम बड़ा सु-फलदायी हुआ - 'निरस बिसद गुनमय फल जासू'। थानों में प्राथमिक रपटें होनी बंद हो गईं - याने अपराध होने रुक गए। अपराधी डर गए। जनसामान्य भी तेजाब लेकर दौड़ा लेता। तेजाब सिद्ध हुआ - 'गंगाजल' - पापमोचक। फिल्म के अंत को लेकर भी उनकी अपनी वृत्ति है। न उन्हें पुलिस पर भरोसा है, न कोर्ट पर। खुला खेल फर्रुखाबादी। वादी ही प्रतिवादी के साथ निपटता है। शायद बिहार की स्थितियों से बना है यह मानस। वहीं कोई स्मगलर मंत्री पुलिस वाले को सरेआम झापड़ मारकर नाकेबंदी से अपना माल ले जाता होगा (अपहरण)। सो, माधुरी दीक्षित ही बंदूक (चलाना कब सीखा?) लेकर टाँगों पर निशाना साधती है भागते खलनायक पर... फिर पनाह माँगते उसे सीने में गोली मारकर पानी में गिराती है। व्यावसायिक सिनेमा में तो, 'शोले' तक में, पुलिस आ जाती है; पर झा साहेब की तीसरी धारा इस मुकाम पर उसकी भी बाप निकलती है। 'गंगाजल' में अजय देवगन की सारी कोशिश के बाद भी खलनायक बाप-बेटों की कमीनगी के चलते जेल और कानून के बदले वहीं मारना पडता है। 'राजनीति' में तो इतने कत्ल होते हैं कि क्या कहने! न कहीं कानून, न पुलिस। 'अपहरण' में भी होश में आया अपराधी (हीरो अजय देवगन) ही गोली मारता है। हारा-लाचार पुलिस इंसपेक्टर बस हथियार भर देता है। 'अपहरण' तो और भी सीमित है बिहार पर। अपहरण का इस स्तर पर ऐसा खुला व्यापार पता नहीं वहाँ भी होता है या कितना अतिरेकी है यह विधान। याने झा साहेब की तीसरी धारा का पूरा शरीर बेहद व्यावसायिक है, पर उसके प्राण जिसमें बसते हैं, वही है तीसरी धारा का लब्बोलुबाब।

लेकिन 'अपहरण' के बाद तो प्राण भी बदल गए। 'राजनीति' और 'आरक्षण' तो व्यावसायिक खाते में परिगणित होने लायक हैं। इसी से झा साहेब को तीसरी धारा के पार जाने वाली फिसलन भरी मेंड़ का राहबर कहा गया। 'राजनीति' से महाभारत का संदर्भ निकाल दो, तो फिल्म फ्लैट हो जाती है - एकदम चालू। और उसके साथ देखो, तो झूठी और बकवास है...। सभी चरित्रों व रिश्तों की पहचान और छवियाँ बदल गई हैं - सब गड्ड्मड्ड हो गए हैं। इससे अच्छी तो थीं कम बजट की प्रयोगधर्मी आंदोलन की फिल्में - 'हम पाँच' और 'कलयुग'। लेकिन 'राजनीति' खिड़की पर सफल खूब हुई - व्यावसायिक होने की एक और सनद। खूब जश्न मनाए प्रकाश जी ने इस सफलता के। भूल ही गए कि प्राणहीन शरीर का जश्न मन रहा है। और उसी रौ में बनी 'आरक्षण' में सभी भूल गए कि फिल्म तो व्यावसायिक शिक्षा पर हो गई है। आरक्षण का मुद्दा तो हाशिए पर चला गया है। ऐसा हुआ तो है 'पिपली लाइव' में भी - किसान समस्या को धकियाकर मीडिया का चरित्र केंद्र में आ गया है। किसान की त्रासदी गौण और मीडिया पर व्यंग्य प्रमुख हो गया है, पर वह 'मैं अपने ही बेसुधपन में लिखती हूँ कुछ, कुछ लिख जाती' वाली कला की फितरत का कमाल है, जबकि आरक्षण अति-अति विश्वास की मनमानी और कनफ्यूजन का दुष्परिणाम।

लेकिन नाम काम आया, यह भी चल ही गई, पर 'राजनीति' जैसी नहीं। यह मामला अन्ना के आंदोलन जैसा है। एक के बाद दूसरी बार चला। तीसरी बार पब्लिक समझ गई और वापस लेना पड़ा। उसी तरह 'राजनीति' व 'आरक्षण' के बाद, शुक्र है कि, झा साहेब भी समझ गए और 'चक्रव्यूह' में अपनी राह पर आते नजर आए। और 'सत्याग्रह' में उस राह के कुछ पड़ाव भी पार करते नजर आए, पर प्रायोगिक में 'दामुल' और तीसरी धारा में 'मृत्युदंड' फिर न बनी। बनती भी नहीं। सब कुछ के बावजूद रे साहब से फिर कहाँ बनी 'पथेर पांचाली' और बासु भट्टाचार्य कहाँ बना पाए 'तीसरी कसम'? 'चक्रव्यूह' में तो पुलिस ही हीरो है, पर सारी सफलता के बाद पूँजीपतियों के हाथ बिकी राजनीति व प्रशासन के आगे लाचार हो जाती है और इस 'बिग होल' से नक्सलवाद की सचाई झाँकने लगती है। सैद्धांतिक सच नक्सलवाद को भले गलत सिद्ध करता हो, पर व्यावहारिक सच उनके साथ ही है, क्योंकि जिस सरकार के विरुद्ध अपने देश के ही लोग हथियारबंद हुए हैं, वह सरकार तो गलत है ही, का सच छनकर सामने आता है और तीसरी धारा फिर से सार्थक हो उठी है।

प्रकाश झा के साथ पूरी तीसरी धारा की खास पहचान है दृश्य-निर्माण का कौशल। याद कीजिए, जब 'मृत्युदंड' में विलेन के दरवाजे पर बँधी स्त्री को छुड़ाने पहुँचती है माधुरी दीक्षित और उसकी फटकार के बाद उस खास बूढ़ी द्वारा शुरू की गई ताली। या 'गंगाजल' में कोर्ट में हाजिर होने के वक्त बच्चा यादव के लिए जाल बिछाए पुलिस जिस तरह पकडती है उसे। या 'अपहरण' में व्यापारी को अपहृत करने के लिए बिछाया अजय देवगन व अयूब खान का जाल। इसके बाद झा साहेब की यह कला भी खो-सी गई। यूँ यह व्यावसायिक फिल्म में मसाला बनकर आता था। कभी सधता भी था - 'शोले' में होली मनाते हुए गब्बर का हमला और पैरों पर नाक रगड़ने का घिनौना आदेश तथा इसका फायदा उठाता जय... तह तक का मजा आ जाता है - कितनी भी बार देखिए।

यह सारा कमाल कथा व पटकथा का है। इस धारा ने कहानी और पटकथा को यूँ ही प्राथमिक महत्व नहीं दिया है, जिसका प्रमाण है अधिकांश निर्देशक-निर्माता का पटकथा में सहाय। प्रकाश जी तो करते ही हैं, आमिर खान व मधुर भंडारकर भी करते हैं। यह कला व्यावसायिक में एकरस (मोनोटोनस) व यांत्रिक (मैकेनिकल) हो गई थी। गाने, कैब्रे, फाइटिंग, खलनायक व नायक की पर्दे पर उपस्थिति... आदि के घोल का सारा अनुपात तय था। वो घोल बदल गया तीसरी धारा में। यहाँ यह सब जो बताया जा रहा है, नया घोल है। बल्कि घोल न कहके 'संगति' कहें, तो बेहतर - वह संगति, जिसे रिचर्ड्स 'संगति में सौंदर्य' कहता है और या फिर हमारे मिथक में 'योगेश्वर कृष्ण व धनुर्धर पार्थ' की संगति निश्चित विजयदात्री होती थी। प्रकाश जी भी अपनी फिल्मों में 'हिट और हॉट' को चुन-चुनकर भरते हैं। राजनीति और अपराध जगत का घोल बनाते हैं। इनके बरक्स सरकारी या गैरसरकारी ईमानदार पक्ष को बोलता (वोकल), व बोल्ड बनाकर सर्वजन (मास) को खुश कर देते हैं। अपवाली दोनो से कराते हैं, जो अतिरेकी होकर वाहवाही पाता है।

इन सबसे उनका सिनेमा बहुसंख्यक दर्शक वर्ग का पसंदीदा बन जाता है। टीवी पर बार-बार आने का सबब भी दर्शकता का यही अनुपात ('टीआरपी') है। अतः दर्शकता के लिहाज से तीसरी धारा का हरावल दस्ता यही है, पर असल में यह इस धारा की पाठ-प्रक्रिया भर है। असल में तो तीसरी धारा के हरावल दस्ते हैं - 'रंग दे बसंती' और 'परिणीता'। इनके सरोकार राष्ट्रीय स्तर पर और उससे भी आगे पूरे युग (आधुनिक व अद्यतन) की समस्याओं का प्रतिनिधित्त्व करते हैं। पर सरोकार और कला के स्तरीय निकषों पर तो 'रंग दे बसंती' और 'परिणीता' का कोई जोड़ नहीं - हिंदी में ही नहीं, बहुत करके अन्य फिल्मों में भी। इनकी विस्तृत चर्चा के बिना तो तीसरी धारा की बात हो ही नहीं सकती।

सो, वह 'तीसरी धारा की फिल्मों का आस्वाद' के रूप में कभी फिर...


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हिंदी समय में सत्यदेव त्रिपाठी की रचनाएँ